भारतीय परीप्रेक्ष्य में परिवार को विकसित करने के लिए महिला की अहम भूमिका है। यह विदित है कि महिला के अभाव में पुरूष की प्रगति भी नगण्य है। लेकिन, फिर भी वर्तमान में समाजस्तर पर महिलाओं का संघर्ष पुरूष की तुलना में कहीं अधिक है। महिलाएं उतनी स्वतंत्र नहीं है, जितनी हम सामुहिक मंचों पर चर्चा करते हेैं। महिलाओं संबंधित मंचों और खास दिवसों पर महिलाओं के उत्थान की चर्चा कर समारोह के दरवाजे के बाहर आते ही सभी बातंे इती श्री हो जाती है। समाज में महिलाओं के प्रति नजरिया जब तक नहीं बदलेगा तब तक वह उस स्तर पर स्वतंत्र नहीं हो पाएगी, जितनी जरूरत है। वैसे महिलाओं के प्रति जो सम्मान और नजरिया पिछले 20 वर्षों में था, उसमें आज के समय में बदलाव हुआ है। परिस्थ्तियां बदली है। महिलाओं के सम्मान का ग्राफ बढ़ा है। लेकिन, यह काफी नहीं है। समाज में महिलाओं की बराबरी भागीदारी के लिए शिक्षा के साथ-साथ आर्थिक ताकत बढ़ानी जरूरी है। सरकार को भी इसके लिए विशेष प्रयास करने चाहिए। केंद्र हो या राज्य दोनों सरकार महिलाओं की आर्थिक स्थति में मजबूत करने का प्रयास करेगी तो महिलाओं के संघर्ष की कहानी कम होती जाएगी।
आर्थिक स्तर को पाने के लिए जमीनी स्तर पर काम करना आवश्यक है। बेहतर तकनीकी प्रशिक्षण, सामान्य प्रक्रिया पर कर्ज लेने की सुविधा, व्यवसाय और नौकरी में महिलाओं को बढ़ावा देने के लिए विशेष योग्यता का दर्जा तैयार करना होगा। कुछ योजनाएं ऐसी भी शुरू करनी होगी, जिसमें सिर्फ महिलाएं ही योग्यता रखती हो। महिलाओं की आर्थिक स्थिति सुधरेगी तो वह स्वत: ही समाज में अपना मुकाम पा लेगी। इससे महिलाओं में दृढ़ता का भी विकास होगा और वह पुरूष के निर्णयों में भी अहम भूमिका निभाने में सफल रहेगी। वैसे महिलाओं के उत्थान के लिए सरकार कई योजना में भी अमल में लाई है। लेकिन इनके क्रियान्वयन में खामियां है। यह तंत्र योजनाओं को महिलाओं तक पहुंचाने से पहले ही खत्म कर देता है। नारी समाज और उनसे जुड़ी संस्थाओं को भी इस ओर गौर करना होगा। केवल विशेष दिवसों पर आयोजन करने से काम नहीं चलेगा।
वैसे तो महिलाओं के अभाव में समाज ही नहीं बनता है। नारी से ही परिवार बनता है। लेकिन नारी को मर्यादित जीवनयापन का सलीखा सिखाया जाता है। समाज के डर से महिला एक सीमा में रहकर काम करना पसंद करती है। समाज में कई निठल्ले ऐसे होते हैं, जो महिलाओं पर आक्षेप लगाने में देरी नहीं करते। इन सब से लड़कर एक महिला को अपने परिवार को समाज में बरकरार रखना होता है। ऐसे में समाज भी खुले मंचों पर नारी को विश्वास दिलाए कि वह स्वतंत्र होकर काम करें।
आर्थिक रूप से महिलाएं स्वावलंबी होगी तो घरेलू हिंसाओं में भी गिरावट दिखेगी। आज सभी वर्ग की महिलाएं हिंसा से अछूती नहीं है। महिलाओं के साथ शोषण का कोई आज नया विषय नहीं है। इसका भारत में ही नहीं बल्की विदेशों में भी लंबा इतिहास है। प्रतिदिन अखबारों की सुर्खियों में भी महिला उत्पीड़न पर खबरें प्रकाशित हो रही है। न्याय के लिए भी प्रक्रिया है, लेकिन लंबी न्याय प्रक्रिया में उलझने के डर से महिलाएं इसके लिए आगे भी नहीं आना चाहती।
देश में वर्तमान में महिलाओं का सरकारी, निजी कंपनियां, पुलिस, आर्मी, मेडिकल सेवाएं, इंजीनियरिंग, वैज्ञानकि संस्थानें, शिक्षा में भागीदारी बढ़ी है। महिलाएं आत्मनिर्भर भी हुई है। लेकिन व्यवहारिकता के तौर पर दिखे तो महिलाओं को फिर भी असमान के रूप में देखा जाता है। लैंगिग रूप से समानता अब भी नहीं मिल रही है। यही वजह से है कि लड़के व लड़कियों में आज भी अंतर देखा जाता है।
समाज में महिलाओं के प्रति स्वतंत्र नजरिया नहीं अपनापाने में हमारा टेलीविजन भी जिम्मेदार है। वहां पर आज भी महिलाओं को एक वस्तु के रूप में ही दिखाया जा रहा है। ओटीटी जैसे प्लेटफाॅर्म में महिलाओं को इस तरह दिखाया जा रहा है कि जैसे उनका हमारी संस्कृति से कोई वास्ता नहीं है। विज्ञापन एजेंसियां भी महिलाओं के माध्यम से ही प्रोडक्ट बेचने में कामयाबी समझ रही है। बुद्धिजीवियों ने महिलाओं को इस तरह पेश किया कि समाज महिलाओं को घर से बाहर निकालने भी डर रहा है। इन सभी परिस्थितियों से बचने के लिए संकल्पबद्ध तरीके से काम करने की जरूरत है। सरकार महिलाओं को मजबूत करने के लिए प्रसारण पाॅलीसी बनाए तो यह समाज के लिए यह भी अच्छा कदम होगा।
- अमित शाह