जन्माष्टमी के दिन में इंदौर, मध्यप्रदेश गया हुआ था। इंदौर से ससुराल होने के नाते काफी लगाव भी है। इसी दिन धर्मपत्नी के मासाजी और मौसीजी भी पुनः अपने घर विजयवाड़ा, आंध्रप्रदेश जा रहे थे। हम उन्हें छोड़ने इंदौर जंक्शन के प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर गए। जहां बाहर हम बातचीत कर ही रहे थे कि दो युवक हाथ में एक छड़ी को लेकर आगे बढ़ते हुए रेलवे स्टेशन से बाहर आते हुए दिखे। पहली बार देखा तो ऐसा लगा कि दोनों में एक साथी नेत्रहीन है और दूसरा रास्ता दिखाकर बाहर की ओर ला रहा हैं। मैं उनके सामने ही खड़ा था। लेकिन, उन्होंने छड़ी को आगे बढ़ाते हुए पूछा, भाई साहब! बाहर जाने का यहीं रास्ता है क्या ? फिर हमें ज्ञात हुआ कि इसका मतलब दोनों नेत्रहीन है, लेकिन वह स्वयं ही एक-दूसरे की मदद कर आगे बढ़ रहे हैं। इस दौरान मेरे मन की भी इच्छा हुई कि मैं उन्हें बाहर तक छोड़ दूं, इतने में ही धर्मपत्नी भी बोल उठी कि आप उन्हें बाहर तक छोड़ आइए न।
मैं तुरंत उनके नजदीक गया। मैंने मेरा हाथ दिया तो एक साथी ने मेरा कंधा पकड़ लिया। दोनों को मैन गेट के बाहर तक छोड़ा। हालांकि मेरे मन में था कि उन्हें उनके गंतव्य स्थान तक छोड़ने के लिए ऑटो किराए पर लेकर बिठा दूं। लेकिन, वह नेत्रहीन थे, फिर भी आत्मस्वावलंबी थे। उन्होंने मुझे धन्यवाद भी दिया और कहां कि हम अब चले जाएंगे। हालांकि यह अत्यंत साधारण सी लगने वाली मदद है। लेकिन, मेरे ख्यालात में ऐसे छोटे-छोटे सहयोग ही व्यक्ति को सुकून की सांस भी देते है।
हालांकि, मैं यह नहीं समझता कि मेरी मदद छोटी थी या बड़ी। या हो सकता है वह नेकी के तहत आता ही नहीं हो। लेकिन, वह नेत्रहीन होते हुए भी स्वावलंबी होने का बड़ा संदेश भी दे गए।