भारत में सड़क दुर्घटनाओं से मौत होना आम बात की तरह हो चुका है। जबकि इससे होने वाला नुकसान संबंधित का परिवार ही समझ सकता है। पूरे देश में हर साल 1 लाख 37 हजार मौत सिर्फ यातायात दुर्घटनाओं से हो रही है। इसकी वजह कहीं न कहीं यातायात नियमों की सख्ती से पालना नहीं करना तो है ही साथ ही हमारे स्वयं की लापरवाही भी शामिल है। हम राजस्थान की ही बात करे तो परिवहन और सड़क सुरक्षा विभाग के 2018 में जारी आंकड़े चौंकाने वाले है। चौंकाने वाले इसलिए कि 21723 दुर्घटनाओं में 20132 दुर्घटनाएं महज तेज गति से वाहन चलाने पर हुई है। इसका सीधा सा मतलब है कहीं न कहीं चालकों का भी गैर जिम्मेदाराना रवैया रहा है। विभाग की ओर से निरंतर जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं, लेकिन यह नाकाफी है। क्योंकि राजस्थान में प्रति वर्ष बढ़ती वाहनों की संख्या के अनुरूप दुर्घटनाएं भी बढ़ी है। आंकड़ों पर नजर डाले तो जहां वर्ष 2008-09 में 64.88 लाख पंजीकृत वाहन थे तो यह 2018 होते-होते 162.80 लाख में तब्दिल हो गए। इससे साफ है कि लगातार वाहनों की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में दुर्घटनाओं से निपटने के लिए सावधानियों के साथ सचेत रहना अति आवश्यक है।
राजस्थान में यह अच्छी बात भी है कि पिछले 10 साल के आंकड़ों को देखे तो दुर्घटनाओं में कमी भी आई है। 2009 में कुल 25114 केस थे तो 2018 में दुर्घटनाओं के केस 21743 रहे थे। 2018 में 10320 लोगों ने सड़क दुर्घटनाओं में अपनी जान गंवा दी। विशेष तौर पर युवाओं पर गौर करें तो यह काफी विचारणीय और चिंताशील विषय है। क्योंकि सड़क दुर्घटना में जान गंवाने वाले 2776 ऐसे युवा है जिनकी आयु 18 से 25 वर्ष तक की है। यह कुल मृत्युदर का लगभग 26 फीसदी से अधिक है। यानी वाहन चलाना शुरू करने के दौरान या कुछ समय में ही वह शिकार हो गए। विभाग की रिपोर्ट देखे तो राजस्थान में प्रत्येक दिन 61 सड़क दुर्घटनाएं हो रही है। 28 जनें मौत का शिकार हो रहे हैं।
आंकड़ों से परे बात करें तो यह दुर्घटनाएं और अधिक हो सकती है। यह वहीं आकंड़े है जिनके प्रकरण गंभीर होने की वजह से दर्ज है। छोटी-मोटी दुर्घटनाएं आपसी समझाइश के कारण कई बार दर्ज ही नहीं होती। इन दुर्घटनाओं से सिर्फ शारीरिक स्तर पर ही नुकसान नही, बल्की परिवार आर्थिक रूप से भी प्रभावित हो रहे हैं। आकस्मिक खर्चों से घर की आर्थिक स्थितियां बदत्तर होती जा रही है। जान गंवाना सो अलग। सरकार और विभाग के साथ-साथ आमजन को भी इसके लिए सहभागिता निभानी होगी। पंचायत स्तर पर जागरूकता शिविर चलाने होंगे। इन शिविरों के माध्यम से ऐसी कहानियों के बारे में बताना होगा, जिनका सड़क दुर्घटना के कारण सबकुछ उजड़ गया। हम आंकड़ों का विश्लेषण करे तो साफ है ज्यादातर दुर्घटनाएं तेज गति से वाहन चलाने पर हई है। सबसे पहले सामान्य गति से वाहन चलाने की ओर ध्यान बांटना होगा।
सड़क दुर्घटनाओं के दौरान होने वाली मृत्यु दर को कम करने के लिए हेलमेट की अनिवार्यता सख्ती से होनी ही चाहिए। वर्तमान में एक-दो शहरों को छोड़ दे तो यह हाल है कि हेलमेट इक्का-दुक्का के पास ही दिखेगा। हा, ऐसा नहीं है कि पुलिस भी इस ओर ध्यान नहीं दे रही है, लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते वह स्वतंत्र रूप से कार्रवाई ही नहीं कर पाती। जिस वजह से नियमों को तोड़ना एक आदत सी हो गई है। सबसे अहम बात जरूरी वाहन चालक संबंधित नियमों को सख्ती से पालना करना अति आवश्यक है। इसके लिए किसी भी प्रकार का बाहरी दबाव समाप्त करना होगा। वैसे मित्रता पूर्वक व्यवहार से बातचीत करना उत्तम है। लेकिन, जब खुद को ही जान की परवाह न हो तो थोड़ा सख्त होना भी जरूरी है। जैसे लॉकडाउन का उदाहरण ही हमारे समक्ष प्रत्यक्ष है।
परिवार और सड़क सुरक्षा विभाग और पुलिस प्रशासन के मध्य एक संधिपूर्वक कार्य करना भी जरूरी है। हर जिले में हॉक प्रणाली की शुरूआत होनी चाहिए। यह थाना क्षेत्र के अनुसार 24 घंटे भ्रमण पर हो तो बेहतर है। इस हॉक के माध्यम से तेज गति से अनियंत्रित वाहन चलाने वाले और बिना हेलमेट का उपयोग करने वालों पर ऑन द स्पॉट कार्रवाई होनी चाहिए। यह कार्रवाई सिर्फ चालान तक ही सीमित नहीं हो, बल्की लाइसेंस निलंबन जैसी प्रक्रिया को अमल में लाना होगा। इसके लिए निःसंदेह सरकार का आर्थिक भार बढ़ेगा, लेकिन कम दुर्घटनाएं होने पर सुकून भी मिलेगा। यह जीवन से जुड़ा मामला है, इसलिए सरकारी तंत्र को भी मजबूती और ईमानदारी से काम करना जरूरी है। हम समझाइश का तरीका भी अपना सकते है। लेकिन इसके लिए चिन्हीकरण की व्यवस्था भी लाइसेंस से जोड़नी होगी। ताकी अगली बार भी गलती दिखे तो कानून के अनुरूप सजा का प्रावधान हो सके।
- अमित शाह, स्वतंत्र
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@amitbankora
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