शुक्रवार, 11 मार्च 2022

नैतिक शिक्षा का पतन और आदर्शों में बदलाव से युवा निभा रहे विलेन का रोल

एक वक्त था, जब एक विद्यार्थी के आदर्श भीमराव अंबेडकर, महात्मा गांधी, एपीजे अब्दुल कलाम, सुभाषचंद्र बोस जैसे महान व्यक्तित्व थे। लेकिन अब इनकी जगह सिनेमाई कलाकारों ने ले ली। देश में बढ़ते क्राइम में युवाओं की लिप्तिता यही इशारा करती है। आज कई बड़ी घटनाएं मौज-शौक के लिए होती है। जिंदगी के दिखावे के लिए युवा ऐसे कदम अंगीकार कर लेता है कि उसका परिणाम वह स्वतः भी नहीं जान पाता। नतीजन समाज में एक विलेन की भूमिका अदा हो जाती है। 

देश में लगातार बढ़ी रही वारदाताओं के पीछे हमारे नैतिक मूल्यों का पतन भी है। हमारी शिक्षा पद्वती में भी नैतिक मूल्यों को विलुप्त कर दिया। नैतिक शिक्षा को हल्के में इसलिए लिया गया, क्योंकि हमारे सिस्टम ने इस विषय को कभी अंक प्रणाली में नहीे जोड़ा। बच्चा जब बढ़ा होता है तो वह जो देखता है, वहीं सीखता है। यदि हम करेला दिखाएंगे तो कड़वाहट महसूस करेगा। आईसक्रीम दिखाएंगे तो वह मिठास का अनुभव करेगा। 

समाज में रेप जैसे मामले बढ़ रहे हैं। कठोर कानून का असर भी नहीं हो रहा है। रेप के मामले तभी रूक सकते हैं जब सामाजिक विचारधार एक आंदोलन के रूप में उभर कर आए। ऐसे मामलों को रोकने के लिए नैतिक मूल्यों का होना अत्यंत आवश्यक है। यह नैतिक मूल्य तभी विकसित हो सकेंगे, जब हम जन्म से लेकर बालिग होने तक उसे देंगे। काफी हद तक युवाओं में विलेन का रोल बढ़ाने में हमारा कंटेंट रहा है। सोशल मीडिया और टेलीविजन ने टीआरपी की आड़ में ऐसा कंटेंट परोसा है कि युवाओं का माइंड वॉश हो रहा है। वह हाई प्रोफाइल में अपने आप को देखना चाहता है, इस वजह से वह अपनी हदें पार कर लेता है। समाज को भी अपनी बेटों-बेटियों के प्रति विचारधारा में बदलाव करना होगा। यहीं बदलाव वारदात करने से रोक सकेगा। हमने हमेशा बेटियों की अपेक्षा की है। बेटियों को महज वंश को बढ़ाने की विचारधार के समकक्ष रखा है। जिस वजह से युवाओं में भी बेटियों प्रति भेदभाव की मानसिकता पनपी है।

सामाजिक विचारधारा को बदलने के लिए संचार क्रांति लानी आवश्यक है। समाज में नैतिक मूल्यों को बढ़ाने के लिए परोसे जाने वाला कंटेंट बदलना होगा। आज स्थितियां ऐसी हो गई है कि बालिग के लिए बनाया जाने वाला कंटेंट किशोर भी देख रहा है। क्योंकि उसे रोकने के लिए कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है। यानी फिल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्य बालिग के साथ ही नाबालिग भी देख रहा होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने सिर्फ औपचारिकता निभाई है। फिल्म निर्माता एक चेतावनी लिखकर स्वतंत्र हो जाते हैं। लेकिन भविष्य पर पड़ने वाले इसके असर का कोई जिम्मेदार नहीं होता है। 

वर्तमान में अधिकांश युवा अपने आदर्श अभिनेताओं को मानने लगे है। जबकि वह महज कलाकार है। किरदार नहीं है। जब हम किरदार की जगह कलाकार को आदर्श मानने लगेंगे तो हमारी नैतिकता का डूबना तय है। ‘पुष्पा: द राइज’  इसका प्रमुख उदाहरण है। इस फिल्म ने युवा दिल में छाप छोड़ी है। लेकिन, क्या यह नैतिकता के नाते सही है। एक तस्कर को उभरता हुआ सितारा बताना कहां उचित है। फिल्म में विलेन को दूसरों के लिए आदर्श दिखाने की कोशिश की है। यह कंटेंट हमारे समाज को कहां ले जाएगा। यह विचारणीय ही नहीं बल्की इस देश का बड़ा मुददा है। 
- अमित शाह 

स्किल बढ़ाने के लिए औद्योगिक घरानों में सीधी नियुक्ति हो, सरकार सहयोग देकर कर सकती है प्रोत्साहित


हाल ही में सरकार की एक रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि स्किल इंडिया के तहत प्रशिक्षण लेने और रोजगार पाने वालों में भारी गिरावट आई है। राज्यों ने इसे भले कोरोना की वजह मानी हो, लेकिन युवाओं में स्किल बढ़ाने के लिए सरकार को अब ऐसी योजनाओं के प्रारूप को बदलने की जरूरत है। सरकार स्वयं प्रशिक्षण देने के बजाए जरूरतमंद युवाओं को सीधे देश के औद्योगिक घरानों से जोड़ सकती है। इससे काम भी ईमानदारी से होगा और प्रशिक्षण के मायने भी सही साबित होंगे। फिलहाल स्किल बढ़ाने के लिए राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार, सभी स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ समझौता कर युवाओं को प्रशिक्षण देने का काम कर रही है। फिर रोजगार के लिए अलग से मशक्कत करनी पड़ती है। यदि प्रशिक्षण ही औद्योगिक घरानों से शुरू हो तो इसका डबल फायदा मिलेगा। जहां प्रशिक्षण दिया जा रहा है, वहीं पर रोजगार का अवसर मिल सकता है। इसमें से यह तय है कि जो भी अपनी स्किल को उस कपंनी की जरूरत के अनुसार बढ़ाएगा वह सबसे पहले वहां स्थायी रोजगार पाने का हकदार बन जाएगा। इसके लिए सरकार को ऐसी स्किम लान्च करनी चाहिए कि वह प्रशिक्षण के लिए उस औद्योगिक क्षेत्र को सहयोग करें। प्रशिक्षण की निश्चित अवधि तय कर उस दौरान सरकार फंड औद्योगिक घरानों को अदा करें। ताकी निजी कंपनियां भी खुशी-खुशी बेरोजगारों को प्रशिक्षण देने के लिए तैयार हो जाएगी।

ग्रामीण विकास मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट में यह बताया गया है कि दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना में पिछले चार साल में 90 फीसदी तक गिरावट आई है। यह आंकड़े वाकई चौकाने वाले है। एक तरफ जहां बेरोजगारी चरम पर है, वहीं दूसरी ओर प्रशिक्षण के रूझान में कमी दिख रही है। इसमें दो बातें सामने आती है। पहली या तो युवाओं को इन प्रशिक्षणों के माध्सम से रोजगार के अवसर की उम्मीद नहीं है। दूसरा यह हो सकता है कि इन प्रशिक्षणों की क्वालिटी युवाओं को रास नहीं आ रही हो। हालांकि यह महज कयास है। क्योंकि सरकार ने इसे कोरोना की वजह माना है। 

असल में जो भी हो, लेकिन अब ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन पर मंथन करना जरूरी है। यहां हम सिर्फ दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना की बात नहीं कर रहे, बल्की उन तमाम योजनाओं के बारे में मंथन आवश्यक है जो रोजगार के अवसर पैदा करने में सहायक है। औद्योगिक घराने प्रशिक्षित कार्मिकों की मांग इसलिए करते है ताकी वह उनक कार्मिक का उपयोग पहले दिन से ही कर सके। वह आउटपुट देखना चाहते है। इस क्षेत्र में प्रशिक्षण देने का वक्त नहीं है। क्योंकि कोई भी निजी क्षेत्र व्यर्थ का वेतन देना नहीं चाहेगा। इसलिए सरकार यदि प्रशिक्षण निजी औद्योगिक घरानों में ही कराने की व्यवस्था करें तो बेहतर हो सकता है। इससे कार्यक्रम की क्वालिटी भी बनी रहेगी।