सोमवार, 25 मार्च 2019

प्री-वेडिंग वीडियो शूट, सोशल मीडिया पर उगलता जहर, दिखावे के लिए पनप रही पाश्चात्य संस्कृति


प्री-वेडिंग वीडियो और फोटो शूट का चलन इन दिनों बढ़ गया है। प्री-वेडिंग शूट शहरों से अब ग्रामीण परिवेश में भी अपनी जगह बनाने में कामयाब हो रहा है। पाश्चात्य संस्कृति को मिल रहा बढ़ावा भारतीय संस्कृति के लिए खतरा तो है ही साथ ही सामान्य परिवारों के लिए एक चुनौती भी। आर्थिक रूप से मजबूत परिवार अपने दिखावों के लिए एक अलग ही संस्कृति का निर्माण कर रहे हैं। बढ़ते प्री-वेडिंग ट्रेड से आजकल आधा भारत चिंतित भी नजर आ रहा है, लेकिन उनके आसपास ही पैर पसार रही पाश्चात्य संस्कृति में वह भी अपने आप को समायोजित करने में पीछे नहीं हट रहा। आजकल सोशल मीडिया पर प्री-वेडिंग का िवरोध ऐसे ही बढ़ा है जैसे इसका चलन। आजकल हर व्यक्ति अपना अलग तरीके से प्रजेंटेशन देना चाहता है। खुद को अलग साबित करने के लिए प्री-वेडिंग भी एक हिस्सा है।
अब समाज में यह बहस छीड़ रही है कि क्या वाकय में शादी से पहले पति-पत्नी का अन्य शहरों में जाकर शूट करवाना सही है। शादियांे में बॉलीवुड तड़के के बीच प्री-वेडिंग का प्रसारण हमारी संस्कृति और समाज को किस स्तर तक पहुंचाएगा। बहस हो रही है, लेकिन यह बहस सिर्फ चंद मिनटों में ही सीमट रही है। क्योंकि प्री वेडिंग वहीं परिवार करवा रहे है जो समाज में प्रतिष्ठित और आर्थिक रूप से सुदृढ़ है। 

दूसरी बात यह है कि प्री-वेडिंग की शुरुआत सिर्फ इसलिए की गई थी ताकी शादी से पहले जोड़े फ्रेंडली बन जाए। एक-दूसरे को पहचान ले। लेकिन अब इसका यह रूप विकराल ले रहा है। विकराल का मतलब भयानक नहीं है। लेकिन, यह भारतीय संस्कृति के लिए कठोरघात रूप ही है। दिल्ली में तो अब इसके लिए स्टूडियो तक बन रहे हैं। ताकी कपल को दूसरे शहरों में नहीं जाना पड़ा और स्टूडियो में ही अलग-अलग लोकेशन की शूट एक जगह ही हो सके। अब यह शूट फिल्मो की तरह भी होने लगे है, जैसे पहली बार कैसे मिलना हुआ, किस तरह प्रपोज किया वगैरह, वगैरह।  फिर इस फिल्म को रिसेप्शन में बताया जाता है। यह फिल्म कितनी हिट या फ्लॉप रही यह तो वह स्वयं ही आंकलन कर सकते है, लेकिन इससे भारतीय संस्कृति के पक्षकार जरूर असहज महससू करने लगे है।
हालांकि यह बात तो तय है कि पाश्चात्य संस्कृति अब भारत में कई गुणा अपने पैर पसार चुकी है। बदलते परिवेश और हालात से ही आजकल रिश्तों में भी खटास बढ़ी है। हर कोई व्यक्ति अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीना चाहता है। चाहेगा क्यों भी नहीं। मैं भी समर्थित हूं। हमें अपनी जिंदगी को जीने के लिए दूसरों के विचारों का बोझ उठाने की जरूरत नहीं है। लेकिन, हमें यह भी तो तय करना होगा कि हम अपनी जिंदगी को आसान बनाने के लिए कहीं समाज को तो बर्बादी पर नहीं पहुंचा रहे हैं। क्योंकि समाज ही एक ऐसा दायरा है, जिससे संगठित होने के सबूत मिलते है।
देश की समाजाें में लगातार बदल रहे नियमों की वजह हर सामाजिक प्राणी है। क्योंकि नियम सिखाने वालो अपनी बारी आते ही वह नियम घर के एक कोने में टांग लेते है। नियमों को िसर्फ उन लोगों पर थोपा जाता है जो समाज में सुख और आनंद से जिंदगी जीना चाहते है। क्योंकि साधारण व्यक्तित्व हम कमजोर समझते है। हालांकि प्री वेडिंग को भारतीय संस्कृति के कुछ पक्षकार भी स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन उनका मत है कि आजकल कई बार देखा गया है कि अंतिम समय में सगाई टूटना या शादी के कुछ ही समय बाद वापस अलग हो जाना आमबात हो गई है। इस स्थिति में प्रीवेडिंग नकारात्मक हो सकती है। इसीलिए इसका विरोध भी इन दिनों सोशल मीडिया के माध्यम से बढ़ गया है। 

- अमित शाह

2 टिप्‍पणियां:

  1. निश्चय ही विचारणीय आलेख है।समाज मे इनदिनों दिखावे की होड़ है,जिसके कारण इस प्रकार के बेवजह खर्चे बढ़ रहे हैं।बधाई।

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  2. धन्यवाद सर। आपका परिचय देते तो मुझे और ख़ुशी होती।

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