एक वक्त था, जब एक विद्यार्थी के आदर्श भीमराव अंबेडकर, महात्मा गांधी, एपीजे अब्दुल कलाम, सुभाषचंद्र बोस जैसे महान व्यक्तित्व थे। लेकिन अब इनकी जगह सिनेमाई कलाकारों ने ले ली। देश में बढ़ते क्राइम में युवाओं की लिप्तिता यही इशारा करती है। आज कई बड़ी घटनाएं मौज-शौक के लिए होती है। जिंदगी के दिखावे के लिए युवा ऐसे कदम अंगीकार कर लेता है कि उसका परिणाम वह स्वतः भी नहीं जान पाता। नतीजन समाज में एक विलेन की भूमिका अदा हो जाती है।
देश में लगातार बढ़ी रही वारदाताओं के पीछे हमारे नैतिक मूल्यों का पतन भी है। हमारी शिक्षा पद्वती में भी नैतिक मूल्यों को विलुप्त कर दिया। नैतिक शिक्षा को हल्के में इसलिए लिया गया, क्योंकि हमारे सिस्टम ने इस विषय को कभी अंक प्रणाली में नहीे जोड़ा। बच्चा जब बढ़ा होता है तो वह जो देखता है, वहीं सीखता है। यदि हम करेला दिखाएंगे तो कड़वाहट महसूस करेगा। आईसक्रीम दिखाएंगे तो वह मिठास का अनुभव करेगा।
समाज में रेप जैसे मामले बढ़ रहे हैं। कठोर कानून का असर भी नहीं हो रहा है। रेप के मामले तभी रूक सकते हैं जब सामाजिक विचारधार एक आंदोलन के रूप में उभर कर आए। ऐसे मामलों को रोकने के लिए नैतिक मूल्यों का होना अत्यंत आवश्यक है। यह नैतिक मूल्य तभी विकसित हो सकेंगे, जब हम जन्म से लेकर बालिग होने तक उसे देंगे। काफी हद तक युवाओं में विलेन का रोल बढ़ाने में हमारा कंटेंट रहा है। सोशल मीडिया और टेलीविजन ने टीआरपी की आड़ में ऐसा कंटेंट परोसा है कि युवाओं का माइंड वॉश हो रहा है। वह हाई प्रोफाइल में अपने आप को देखना चाहता है, इस वजह से वह अपनी हदें पार कर लेता है। समाज को भी अपनी बेटों-बेटियों के प्रति विचारधारा में बदलाव करना होगा। यहीं बदलाव वारदात करने से रोक सकेगा। हमने हमेशा बेटियों की अपेक्षा की है। बेटियों को महज वंश को बढ़ाने की विचारधार के समकक्ष रखा है। जिस वजह से युवाओं में भी बेटियों प्रति भेदभाव की मानसिकता पनपी है।
सामाजिक विचारधारा को बदलने के लिए संचार क्रांति लानी आवश्यक है। समाज में नैतिक मूल्यों को बढ़ाने के लिए परोसे जाने वाला कंटेंट बदलना होगा। आज स्थितियां ऐसी हो गई है कि बालिग के लिए बनाया जाने वाला कंटेंट किशोर भी देख रहा है। क्योंकि उसे रोकने के लिए कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है। यानी फिल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्य बालिग के साथ ही नाबालिग भी देख रहा होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने सिर्फ औपचारिकता निभाई है। फिल्म निर्माता एक चेतावनी लिखकर स्वतंत्र हो जाते हैं। लेकिन भविष्य पर पड़ने वाले इसके असर का कोई जिम्मेदार नहीं होता है।
वर्तमान में अधिकांश युवा अपने आदर्श अभिनेताओं को मानने लगे है। जबकि वह महज कलाकार है। किरदार नहीं है। जब हम किरदार की जगह कलाकार को आदर्श मानने लगेंगे तो हमारी नैतिकता का डूबना तय है। ‘पुष्पा: द राइज’ इसका प्रमुख उदाहरण है। इस फिल्म ने युवा दिल में छाप छोड़ी है। लेकिन, क्या यह नैतिकता के नाते सही है। एक तस्कर को उभरता हुआ सितारा बताना कहां उचित है। फिल्म में विलेन को दूसरों के लिए आदर्श दिखाने की कोशिश की है। यह कंटेंट हमारे समाज को कहां ले जाएगा। यह विचारणीय ही नहीं बल्की इस देश का बड़ा मुददा है।
- अमित शाह