गुरुवार, 23 मार्च 2023

कांग्रेस का वर्चस्व बचाने के लिए आरपीएस को नीति बदलनी होगी

पांच राज्यों के चुनावी नतीजों ने एक बार फिर कांग्रेस को हाशिए पर पटक दिया है। एक मजबूत पार्टी का इस तरह ताश के पत्तों की तरह ढेर हो जाना शोध का विषय है। आम भाषा मे कहा जाता है भाई जीना है तो जमाने के साथ चलना होगा। यही बात कांग्रेस पर भी लागू होती है। पुरानी परिपाटियों को छोड़ उन्हें अब नई जमीन तलाशने की जरूरत है। अब खुद का वर्चस्व बचाने के लिए आरपीएस यानी राहुल, प्रियंका और सोनिया गांधी को अपनी नीति बदलनी होगी। पंजाब को देखे तो सीधी सी गणित है कांग्रेस को भीतरघात ने ही हराया है। यहां तक की दिग्गज नेताआंे को भी औंधेमूंह लटकना पड़ा। कांग्रेस यूपी में तो पूरी तरह से बिखरी हुई प्रतीत आ रही है। कारण साफ है कि इस पार्टी को नई दिशा की जरूरत है। एक विशेष समुदाय को लेकर कांग्रेस का स्थायी टेग बना हुआ है। सबसे पहले तो इस टेग को कांग्रेस में खत्म करना होगा। इसके लिए उन्हें ही नई नीतियों को तलाशने की जरूरत है। विशेष समुदाय को भाजपा भी उतना ही सम्मान दती है जितना कांग्रेस। लेकिन, प्रतिद्वंदी किसी एक टेग को लेकर काम नहीं कर रही है। पहली सीख तो इसीसे लेनी चाहिए।   

कांग्रेस में हमेशा पद के लिए विवाद रहा है। राजस्थान में भले ही कांग्रेस की सरकार है, लेकिन यहां भी दो गुट पायटल और गहलोत के रूप में सामने आ चुके है। हालांकि राजस्थान में जादूगर अपनी कला के माध्यम से दिल जीत लेते है, लेकिन हर जगह ऐसा जादू चले यह भी गारंटी नहीं है। मध्यप्रदेश इसका उदाहरण है। इसलिए आपसी खींचातान दूर करना आवश्यक है। सबसे पहले इसके लिए आरपीएस को ही पहल करनी होगी। उन्हें अब कांग्रेस की कमान परिपाटी के विरूद्ध नए चेहरे को सौंपनी होगी। नया चेहरा यानी ये नहीं किसी को भी उठाकर ले आए, लेकिन ऐसे चेहरे की जरूरत है जो सुना-सुना सा नजर आए। कांग्रेस ने यह सोचा भी होगा, लेकिन, सेवादार होने नहीं देते। सेवादारों की आदत होती है स्वयं के नंबर बढ़ाने के लिए वह अपने राजा की झूठी प्रशंसा कर लेते है। यहीं राहुल और प्रियंका के साथ हो रहा है। सेवादार उनकी कमियां बताने के लिए तैयार नहीं है और आरपीएस उनकी हो रही प्रशंसा को समझने के लिए तैयार नहीं है। 

यदि कोई शिक्षक स्कूल में बच्चे की तारीफ हर रोज करने लगे तो वह भूल जाता है कि उसके अंदर कोई कमी भी है। ऐसे में वह बु़िद्धमान समझने लगता है और परीक्षा की घड़ी में वह जवाब दे देता है। यही हाल कांग्रेस का हुआ है। सेवादारों ने आरपीएस को यह अहसास ही नहीं होने दिया की अब नए चेहरों की जरूरत है। हालांकि चुनावों के दौरान लोगों ने जरूर इसका जवाब दिया है, लेकिन यह बात आलाकमानों को क्यों समझ नहीं आ रही यह परे है। एक बात और है कि यदि प्रतिद्वंद्वी अपना मजबूत हो तो हमें उससे मुकाबला करने का तरीका बदल देना चाहिए। कांग्रेस को प्रतिद्वंद्वी से आगे बढ़ने के लिए फोकस करना चाहिए, न की रोकने पर।   

- अमित शाह, स्वतंत्र लेखक


मीडिया समाज की सार्थकता के लिए टीवी डिबेट पर विचार करना जरूरी

मीडिया चैनलों पर इन दिनों डिबेट की बाढ़ है। न्यूज चैनल खोलते ही आपको एक ऐसी डिबेट मिलेगी, जिसमें लगेगा की खुद को बुद्धिजीवी साबित करने की जंग चल रही है। बात उस समय दर्द दे जाती है जब टिप्पणीकार एंकर को ही आड़े हाथ ले लेता है। एंकर के पास इसके पास एक ही सहारा रहता है कि वह बुलाए अतिथि की आवाज को दबा दे और अपना काम शुरू कर दे। अब प्रश्न यह उठता है कि पत्रकारिता समाज में ऐसे हालात क्यों पैदा हो रहे है? डिबेट करवाने वालों पर ही अंगुलियां उठ रही है। यह सब कहीं टीआरपी की होड़ में तो नहीं हो रहा। हां, यह विचारणीय मुददा है। मीडिया ऐसी डिबेट क्यूं करता है जिसमें न्यूज कम और विवाद ज्यादा उपजे। देश में  सांप्रदायिकता पर हो रही डिबेट तो तुरंत बंद हो जानी चाहिए। यह समझ से परे है कि व्यर्थ के प्रश्न पूछकर हम सभी का समय क्यों बर्बाद करने में तुले हुए है। हमने एक डिबेट में दो-दो समुदाय से दो-दो बुद्धिजीवी बुलाए। अब क्या होगा। जो जिस समुदाय से है वो इसीका पक्ष लेगा। फिर ऐसी डिबेट करवाने से क्या फायदा। महज हमारे चैनलों की टीआरपी बढ़ाने के लिए तेज लाउड में बहस करवाना कहां तक उचित है। उदयपुर कांड के बाद तो चैनलों ने भी नया पैंतरा अपना लिया है। डिबेट से पहले और बीच-बीच में  उदघोषणा की जा रही है कि हमारे चैनल का कोई लेना-देना नहीं है। यह पैनल के विचार है। जब आप स्वयं पैनल को बुलाकर बहस करवा रहे हो तो आप जिम्मेदार क्यों नहीं?

देश में आज भी मीडिया ही एक ऐसा संगठन है जिस पर लोग आंख मुंदकर विश्वास करते हैं। टीवी पर दिखाई जा रहे कंटेंट को लोग अपने आसपास और परिवार में भी साझा करते हैं। एक आम व्यक्ति जो देश के लिए प्रत्यक्ष सहयोग नहीं दे सकता है, लेकिन वह अप्रत्यक्ष रूप से देश के निर्माण में मदद करता है। वह देश की छवि बनाने में मददगार रहता है। उसके लिए वह मीडिया की मदद लेता है। क्योंकि उसे जन्म से यही सीखने को मिलता है कि इस देश में मीडिया भी एक ऐसा समाज है जो हमारे समाज में सत्य और सारगर्भित जानकारियां प्रदान करता है। ऐसे में अति आत्मविश्वास से भरी डिबेट क्यों न बंद हो। 

फेक न्यूज के आरोप में एक एंकर को गिरफ्तार होना पड़ता है। मीडिया समाज के लिए यह अच्छा नहीं है। यदि कोई एंकर फेक न्यूज के आरोप में गिरफ्तार होता है तो यह पूरे संगठन को झकझोर देने वाली घटना है। एंकर सही है या गलत, यह कोर्ट तय करेगी। लेकिन, ऐसी नौबतों से बचने के लिए हमारे मीडिया समाज को जागना होगा। रूपरेखा बनानी होगी। मीडिया के विभिन्न संगठनों को इसके लिए विचार करना होगा। ठोस निर्णात्मक कदम उठाने होंगे, ताकी मीडिया अपने वजूद को बनाए रखे। हम बेपैर की डिबेट चलाकर स्वयं की सच्चाई पर प्रश्न उठाने का अवसर दे रहे हैं। 

- अमित शाह



कोविड़-19 ने हमें समर्पण का भाव दिया, सहयोग और सेवा का हमेशा साक्षी रहा हैं वागड़

कोविड़ – 19 ने जहां आम से लेकर उच्च पदों पर आसीन लोगों को भी प्रभावित किया, वहीं उसके दूसरे पहलू में कई फायदें भी दिखे। हालांकि महामारी, महामारी ही है। इससे जीवन खासा प्रभावित हुआ। लेकिन, फिर भी सकारात्मक सोच को अपनाना कोई गुनाह नहीं होगा। कई बार विपदाएं ही आविष्कार की जननी बनती है। समस्या आने पर ही इसके समाधान के लिए एक नई खोज विकसित होती है। कोविड़ के दौरान यह देखा भी गया है। भारत में आज वेक्सीनेशन का दौर चल रहा हैं। विदेशों में भारत की साख बढ़ी है। कोविड़ में भारत ने अन्य देशो में वेक्सीन पहुंचाकर यह भी साबित किया कि हम जो कहते हैं, उसे करने की क्षमता भी रखते हैं।

इस संदर्भ में हम आम लोगों की जिंदगी में झांककर देखे तो नजर आएगा कि इस बुरे दौर में भी सहयोग के लिए हाथ आगे बढ़े हैं। संगठन और समाज ने अपने स्तर पर इस काल में जुझ रहे लोगों को सहयोग करने का प्रयास किया है। हम वागड़ क्षेत्र की ही बात करे तो यह अहसास होगा कि यहां पर सहयोग और समाजसेवा की जो भावना थी, वह अब कई गुणा ज्यादा विकसित हो चुकी है। लॉकडाउन जैसे हालातों में भी लागों ने दाना-दाना इकट्ठा कर गरीबों का सहयोग किया। कई परिवारों ने अपनी कम आमदनी पर भी सहयोग का सिलसिला जारी रखा। यह तभी संभव था, जब हृदय में सहयोग करने की भावना जागृत हुई हो।

महामारी ने अपने पैर हर गांव में फैलाएं। इससे कोई अछूता नहीं है। कोई बीमारी से प्रभावित हुआ तो कोई आर्थिक रूप से। हालात ऐसे बन गए कि परिवार वाले ही एक-दूसरे से मिलने के लिए सौ बार सोचने लग गए। ऐसे हालातों में भी समाज सेवा के हाथ पीछे नहीं रहे। संगठनों ने घर-घर जाकर सहयोग किया। स्वयं की परवाह किए बिना लोग एक-दूसरे के सहयोग के लिए डटे रहे। इस काल में इन दृश्यों ने भावनाओं को बदला। सहयोग और समर्पण की भावना को गति मिली।

वागड़ धरा के परीप्रेक्ष्य में सहयोग और समर्पण पर चर्चा करना हितकर ही रहेगा। यहां वैसे भी धर्म और आस्था का भंडार, इस प्रकार है, जैसे मानों पूरा वागड़ एक ही परिवार है। हालांकि कुछ कमियां तो हर क्षेत्र में रहती हैं। लेकिन, फिर भी यहां पर समर्पण की भावना का पलड़ा भारी है। कोविड़ में एक बदलाव यह भी आया कि लोगों ने जीने का तरीका भी सीख लिया। प्राय:देखा गया कि लोग परिवार को छोड़कर जो भागमभाग करते थे, उसमें भी विराम लगा। परिवार की अहमियत बढ़ी। पाने की चाहत में हम बहुत कुछ खो देते है। महामारी ने यह भी सिखाया कि पाना ही सबकुछ नहीं है, जो हैं उसे संभालकर रखना  भी बड़ा काम है।